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अपने लिए जिये तो क्या जिये

Guest Writer - inext
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जिंदगी किसी बंधे-बंधाए ढर्रे पर नहीं चलनी थी, सो नहीं ही चली. वक्त के साथ चीजें बदलती चली गई और कदम खुद-ब-खुद नये रास्ते पर बढ़ते गए, बीएचयू में इंजीनियरिंग की पढ़ाई के आखिरी साल में चुनाव लडा. राजनीति का रंग-ढंग देखकर लग गया कि इस तरह से कुछ भी नही बदलने वाला नहीं है. यह घोर निराशा का दौर था. कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए ? उसी दौरान गांधी जी की आत्मकथा पढ़ी. लगा इस तरह से अपनी जिंदगी खुद जिऊंगा तो खुश रहूंगा.

 

दूसरी तरफ परिवार मुझे आईएस बनते देखना चाहता था, लेकिन मन में आ गया था कि नौकरी नहीं करनी है. इस सबसे बचकर निकलने का एक ही रास्ता दिखाई दिया और अमरीका जाकर एमटेक-पीएचडी करने का फैसला ले लिया. जाते वक्त लगा कि अब लौटकर नहीं आऊंगा, मगर साल भर के भीतर ही अमरीका से मोहभंग हो गया. इसकी वजह भी थी. मैं जिस रिसर्च में लगा था, वह डिफेंस में इस्तेमाल किए जाने वाले कंट्रोल पैनल का था. मन इसलिए भी कचोट रहा था कि मैं जिस काम में लगा हूं. मुझे अहसास हुआ कि जाने अनजाने मैं अमरीका के लिए हथियार बना रहा था जिनका इस्तेमाल तीसरी दुनिया के देशों के खिलाफ होगा. मैं अपने काम को लेकर अंदर-अंदर घुटने लगा. मुश्किल ये थी कि लौटने के बाद करुगां क्या ?

 

आखिरकार वतन लौटा और आईआईटी कानपुर पहुंच गया, वह भी बतौर प्रोफेसर इंस्टीट्यूट के मौजूदा डायरेक्टर प्रो. संजय जी. धांडे उस समय हमारे डिपार्टमेंट मेकेनिकल इंजीनियरिंग के हेड हुआ करते थे. हमेशा से बना बनाया ताना-बाना तोड़ने की आदत से पीछा यहां भी नहीं छूटा. मैंने ऐलान किया कि प्रोफेसर के तौर पर मेरा काम विषय को समझाना है, एग्जाम लेना नहीं. इसके बाद मैंने ग्रेडिंग के लिए एक-एक स्टूडेंट के कमरे में जाकर मौखिक परीक्षा ली. यह एग्जामिनेशन की परंपरागत व्यवस्था के खिलाफ था.

 

इसी दौरान अयोध्या में विवादित ढांचा गिराए जाने के बाद शहर में दंगे हो गए, मैंने सांप्रदायिकता के खिलाफ नुक्कड़ नाटक किए. मजदूरों के हक में आंदोलनों में हिस्सा लेने लगा, अनशन पर बैठने लगा. मुझे नाटक किए. मजदूरों के हक में आंदोलनों में हिस्सा लेने लगा, अनशन पर बैठने . मुझे आईआईटी के अन्य प्रोफेसरों की तरह रहने की चेतावनी दी गई. हालांकि इस बीच मैंने काम के साथ किसी तरह का समझौता नहीं किया. मैंने आईआईटी मैनेजमेंट की आपत्ति को लेकर दलील भी दी कि बाकि अपना खाली वक्त परिवार के साथ बिताते हैं. मैं अविवाहित हूं और अपना समय मजदूरों को दे रहा हूं. आईआईटी कानपुर में साल भर बाद ही कह दिया गया कि आप अनुशासन तोड़ रहे हैं. एक सेमेस्टर का वक्त दिया गया. वहीं मैं जो कर रहा था उसमें मुझें आनंद आ रहा था. तभी प्रो.शोभा मदान ने मुझसे पूछा कि मैं कितने दिन आईआईटी में रहना चाहता हूं. मैंने जवाब दिया- ज्यादा से ज्यादा पांच साल. फैसला हो चुका था कि अगर बाद में इंस्टीट्यूट छोडना हैं, तो अभी क्यों नहीं?

 

हांलकि नौकरी से बाहर आने का फैसला किसी को रास नहीं आया, लेकिन मैंने फैसला कर लिया था. बलिया में ही रेवाती गांव में स्कूल से जुडा. ननिहाल में स्कूल खोलकर शिक्षा के क्षेत्र में काम करना शुरु किया. तब तक मेधा पाटेकर और अरुणा राय के संपर्क में आ गया. मैगसेस मिला तो दो दिन लगे तय करने में कि लें या नहीं.

Published in INEXT, Dec 2009 – Foundation Week.

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